परम पिता परमेश्वर खुदा,अल्लाह,गोड सभी तो परमात्मा की ओर पहुचने के रास्ते हैं,फिर यह मजहब,धर्म को लेकर विवाद क्यों ?, हिन्दू धर्म में साकार,निराकार,और भिन्न देवी देवता हैं,जिसकी परमात्मा की ओर पहुचने की रूचि है,वोह उसी प्रकार से उस सर्वशक्तिमान की ओर पहुचने के लिए प्र्यतानशील है,हिन्दू धर्म में साकार स्वरूप की भक्ति करने वालों का विवाद निराकार भक्ति करने वालों से श्रेष्ठता को लेकर विवाद होता रहता है,और साकार स्वरुप की भक्ति करने वालों में भी अपने,अपने स्वरुप के ईश्वर को लेकर विवाद होता रहता है,और नवधा भक्ति को लेकर विवाद होता रहता है कि कर्म योग,भक्ति योग,ध्यान योग इत्यादि में इस प्रकार की भक्ति श्रेष्ठ है या उस प्रकार की भक्ति श्रेष्ठ है, फिर पन्थो को लेकर विवाद कबीरपंथ,जैन पंथ,बौध धर्म इत्यादि में यह पंथ श्रेष्ठ है या वोह पंथ|
सब में ईश्वर का अंश अविनाशी आत्मा है,और फिर क्यों ब्राहमण,क्षत्रिय,वैश्यों और शुद्र में क्यों यह जाती सबसे ऊपर है,या वोह जाती निम्न है, जब सब में ईश्वर का अंश आत्मा है,तो इन जातियों में भेद भाव तो होना ही नहीं चाहिए,सब जातियां बराबर हैं
संत कबीर दास के अनुसार तो "हरी को जो भजे हरी का होई" |
इसलाम को लिया जाये तो वहाँ शिया और सुन्नी में मतभेद समझ में नहीं आता है ऐसा क्यों है ?हैं तो आखिर दोनों मुस्लिम संप्रदाय,एक पहले से शिया जो मुस्लिम संप्रदाय में आतें हैं,और सुन्नी जो कि सुन कर मुस्लमान हुएं हैं,क्या इनके लिए खुदा,अल्लाह पीर,पैगम्बर जुदा है ? यदि खुदा,अल्लाह पैगम्बर,पीर जुदा नहीं हैं,तो आपस में क्यों एक मुस्लिम सम्प्द्रय एक दुसरे को अपने को बेहतर क्यों बतातें हैं ?
इसी प्रकार अगर इसाई धर्म को मानने वोलों में भी,मतभेद क्यों ? इस इसाई धर्म की भी अनेक शाखाएँ हैं, केथोलिक,
प्रोटेस्टेंट,एडवेनटिस्ट,इत्यादि क्या इन इसाई धर्म को मानने वालों के लिए जिसयस अलग है,या खुदा कहें या गोड कहें क्या वोह अलग है,फिर आपस में यह कहना कि यह रास्ता अच्छा है,या वोह रास्ता अच्छा है,कहाँ तक ठीक है ?|
सबकी रगों में खून का रंग एक,सब के लिए धुप,छाओं,गर्मी,सर्दी बरसात एक,ईश्वर,भगवान,गोड,खुदा ने तो कोई पक्षपात नहीं किया,फिर कब समझोगे,सब इंसान एक हैं,परम पिता,परमेश्वर,गोड,खुदा के सब बच्चे हैं,धर्म तो उस सर्वशक्तिमान के पहुचने की,अलग,अलग सिड़ी है,जो परमेश्वर से मिलाने के जरिये हैं,परन्तु आपस में,मतभेद,बैर,लड़ाई,झगड़ा धर्म को लेकर और इंसानियत को भूल जाने पर,यह सिड़ी कहीं भी नहीं ले जाएगी |
अंत में इस कहानी से करता हूँ, एक महावत के पॉँच अंधे बेटे थे,एक दिन महावत ने अपने बेटों से कहा,इस हाथी को स्नान करा दो,उसके अंधे बेटे लग गये उस महावत के हाथी को नहलाने में,जब उसके बेटे हाथी को नेहला चुके तो उस महावत के अंधे बेटों में हाथी को लेकर झगड़ा होने लगा हाथी ऐसा,हाथी वैसा है,जिसके हाथ में हाथी के पैर आये उसने कहा हाथी चार खम्बो जैसा है,जिसके हाथ में हाथी के कान आये उसने कहा हाथी,केले के बड़े,बड़े पत्तों की तरह है, जिसके हाथ में हाथी की सूंड आयी उसने कहा,हाथी एक उस तरह के खम्बे की तरह है जो नीचे से पतला होकर जैसे,जैसे ऊपर जाओ तो मोटा होता जाता है,जिसके हाथ में हाथी के दांत आये वोह बोला हाथी तो हड्डियों से बना हुआ है,जिसके हाथ में हाथी की पूँछ आयी वोह बोला हाथी एक रस्सी की तरह है,जो स्वर्ग,जन्नत,हेवन से लटक रही है, क्योंकि हाथी की पूँछ ऊंचाई पर थी इसलिए उसने ऐसा कहा |
महावत ने जब उनको झगड़ा करते हुए देखा तो उसने कहा तुम सब आंशिक रूप से ठीक कह रहे हो, हाथी इन सब वस्तुओं का सम्मिलित रूप है,तो भाई बहनों, हाथी को उन महावत के बेटो ने अलग,अलग तरह से पहचाना तो यह अलग,अलग तरह के धर्म,सम्पर्दाय अलग रास्ते हैं,उस परम पिता परमेश्वर की ओर पहुचने के,जैसे नदी सागर में मिलने के बाद अपना सवरूप भूल जाती है, उस नदी में बहुत,वेग होता है,इठलाती है,अलग,अलग नदियाँ होतीं हैं, और जब उस शांत सागर में मिलती हैं,तो अपना स्वरुप भूल जातीं हैं,ऐसे ही जब मानव परमात्मा में लीन हो जाता है,तो इन धर्म,सम्पर्दय इत्यादि का कोई महत्व नहीं रह जाता है, और जब आत्मा जो की परमात्मा का स्वरूप है,उसी में लीन हो जाती है,तो मानव निर्मित धर्म,सम्प्रदाय को कोई महत्व नहीं रह जाता है |
आत्मा अंश जीव अविनाशी,उस अविनाशी ईश्वर का स्वरुप है |
सब में ईश्वर का अंश अविनाशी आत्मा है,और फिर क्यों ब्राहमण,क्षत्रिय,वैश्यों और शुद्र में क्यों यह जाती सबसे ऊपर है,या वोह जाती निम्न है, जब सब में ईश्वर का अंश आत्मा है,तो इन जातियों में भेद भाव तो होना ही नहीं चाहिए,सब जातियां बराबर हैं
संत कबीर दास के अनुसार तो "हरी को जो भजे हरी का होई" |
इसलाम को लिया जाये तो वहाँ शिया और सुन्नी में मतभेद समझ में नहीं आता है ऐसा क्यों है ?हैं तो आखिर दोनों मुस्लिम संप्रदाय,एक पहले से शिया जो मुस्लिम संप्रदाय में आतें हैं,और सुन्नी जो कि सुन कर मुस्लमान हुएं हैं,क्या इनके लिए खुदा,अल्लाह पीर,पैगम्बर जुदा है ? यदि खुदा,अल्लाह पैगम्बर,पीर जुदा नहीं हैं,तो आपस में क्यों एक मुस्लिम सम्प्द्रय एक दुसरे को अपने को बेहतर क्यों बतातें हैं ?
इसी प्रकार अगर इसाई धर्म को मानने वोलों में भी,मतभेद क्यों ? इस इसाई धर्म की भी अनेक शाखाएँ हैं, केथोलिक,
प्रोटेस्टेंट,एडवेनटिस्ट,इत्यादि क्या इन इसाई धर्म को मानने वालों के लिए जिसयस अलग है,या खुदा कहें या गोड कहें क्या वोह अलग है,फिर आपस में यह कहना कि यह रास्ता अच्छा है,या वोह रास्ता अच्छा है,कहाँ तक ठीक है ?|
सबकी रगों में खून का रंग एक,सब के लिए धुप,छाओं,गर्मी,सर्दी बरसात एक,ईश्वर,भगवान,गोड,खुदा ने तो कोई पक्षपात नहीं किया,फिर कब समझोगे,सब इंसान एक हैं,परम पिता,परमेश्वर,गोड,खुदा के सब बच्चे हैं,धर्म तो उस सर्वशक्तिमान के पहुचने की,अलग,अलग सिड़ी है,जो परमेश्वर से मिलाने के जरिये हैं,परन्तु आपस में,मतभेद,बैर,लड़ाई,झगड़ा धर्म को लेकर और इंसानियत को भूल जाने पर,यह सिड़ी कहीं भी नहीं ले जाएगी |
अंत में इस कहानी से करता हूँ, एक महावत के पॉँच अंधे बेटे थे,एक दिन महावत ने अपने बेटों से कहा,इस हाथी को स्नान करा दो,उसके अंधे बेटे लग गये उस महावत के हाथी को नहलाने में,जब उसके बेटे हाथी को नेहला चुके तो उस महावत के अंधे बेटों में हाथी को लेकर झगड़ा होने लगा हाथी ऐसा,हाथी वैसा है,जिसके हाथ में हाथी के पैर आये उसने कहा हाथी चार खम्बो जैसा है,जिसके हाथ में हाथी के कान आये उसने कहा हाथी,केले के बड़े,बड़े पत्तों की तरह है, जिसके हाथ में हाथी की सूंड आयी उसने कहा,हाथी एक उस तरह के खम्बे की तरह है जो नीचे से पतला होकर जैसे,जैसे ऊपर जाओ तो मोटा होता जाता है,जिसके हाथ में हाथी के दांत आये वोह बोला हाथी तो हड्डियों से बना हुआ है,जिसके हाथ में हाथी की पूँछ आयी वोह बोला हाथी एक रस्सी की तरह है,जो स्वर्ग,जन्नत,हेवन से लटक रही है, क्योंकि हाथी की पूँछ ऊंचाई पर थी इसलिए उसने ऐसा कहा |
महावत ने जब उनको झगड़ा करते हुए देखा तो उसने कहा तुम सब आंशिक रूप से ठीक कह रहे हो, हाथी इन सब वस्तुओं का सम्मिलित रूप है,तो भाई बहनों, हाथी को उन महावत के बेटो ने अलग,अलग तरह से पहचाना तो यह अलग,अलग तरह के धर्म,सम्पर्दाय अलग रास्ते हैं,उस परम पिता परमेश्वर की ओर पहुचने के,जैसे नदी सागर में मिलने के बाद अपना सवरूप भूल जाती है, उस नदी में बहुत,वेग होता है,इठलाती है,अलग,अलग नदियाँ होतीं हैं, और जब उस शांत सागर में मिलती हैं,तो अपना स्वरुप भूल जातीं हैं,ऐसे ही जब मानव परमात्मा में लीन हो जाता है,तो इन धर्म,सम्पर्दय इत्यादि का कोई महत्व नहीं रह जाता है, और जब आत्मा जो की परमात्मा का स्वरूप है,उसी में लीन हो जाती है,तो मानव निर्मित धर्म,सम्प्रदाय को कोई महत्व नहीं रह जाता है |
आत्मा अंश जीव अविनाशी,उस अविनाशी ईश्वर का स्वरुप है |